बहुत समय पहले की बात है किसी गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। एक दिन उस ब्राह्मण के घर कुछ अतिथि आए। ब्राह्मण की स्थिति इतनी खराब थी कि उन अतिथियों को खिलाने के लिए घर में अनाज तक नहीं था। इस स्थिति को लेकर ही ब्राह्मण और उसकी पत्नी के बीच थोड़ी कहासुनी होने लगती है।
ब्राह्मणी कहती है, “तुम्हें पेट भरने योग्य अनाज कमाना भी नहीं आता है। इसी का नतीजा है कि आज घर में अतिथि आ खड़े हुए हैं और हमारे पास उन्हें खिलाने के लिए कुछ भी नहीं है।”
इस पर ब्राह्मण अपनी पत्नी से कहता है, “कल कर्क संक्रान्ति हैं। मैं कल भिक्षा लेने के लिए दूसरे गांव जाऊंगा। वहां एक ब्राह्मण ने मुझे आमंत्रित किया है। वह सूर्य देव की तृप्ति के लिए कुछ दान देना चाहता है। तब तक जो कुछ भी घर में है, उसे आदर सत्कार के साथ अतिथियों के सामने रखो।”
ब्राह्मण की यह बात सुनकर ब्राह्मणी कहती है, “तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं भोगा है। न कभी खाने को मेवा-मिष्ठान मिला, न ही ढंग के वस्त्र और आभूषण। आज तू कह रहा है कि जो भी घर में पड़ा हो, वो अतिथियों के समक्ष रख दो। जब कुछ है ही नहीं, तो मैं उनके सामने क्या रख दूं। पड़े हैं, तो बस एक मुट्ठी तिल। तो क्या अतिथियों के सामने सूखे तिल रखना अच्छा लगेगा।”
पत्नी की यह बात सुनकर ब्राह्मण कहता है, “ब्राह्मणी तुम्हे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहना चाहिए। कारण यह है कि इच्छा के अनुसार किसी भी मनुष्य को धन की प्राप्ति नहीं होती है। जरूरी है तो पेट भरना और पेट भरने योग्य अनाज तो मैं ले ही आता हूं। अधिक धन की चाहत अच्छी नहीं। ऐसी इच्छा का तुम्हें त्याग कर देना चाहिए। अधिक धन की इच्छा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा बन जाती है।”
माथे पर शिखा वाली बात सुन ब्राह्मणी बड़े ही आश्चर्य से ब्राह्मण से पूछती हैं, “अधिक धन की इच्छा में माथे पर शिखा हो जाती है। मैं कुछ समझी नहीं, जो भी कहना है खुलकर कहिए।”
ब्राह्मणी के इस सवाल का जवाब देने के लिए ब्राह्मण अपनी पत्नी को “शिकारी और गीदड़ की एक कहानी” सुनाता है।
ब्राह्मण कथा की शुरुआत करता है…
एक दिन एक शिकारी जंगल में शिकार की खोज कर रहा था। जंगल में कुछ दूर आगे बढ़ने के बाद शिकारी को एक काले रंग का पहाड़ जैसा विशाल सूअर दिखाई देता है। सूअर को देखते ही शिकारी अपना धनुष उठा लेता है और कमान खींचते हुए सूअर पर निशाना लगा देता है।
कमान से निकला हुआ तीर तीव्र गति से सूअर को घायल कर देता है। घायल होने पर सूअर चिंघाड़ता हुआ शिकारी पर पलटवार कर देता है। सूअर के तीखे दांतों से शिकारी का पेट फट जाता है। इस तरह शिकार और शिकारी दोनों का ही अंत हो जाता है।
इसी बीच खाने की तलाश में भकता हुआ एक भूखा गीदड़ वहां से होकर गुजरता है, जहां शिकारी और सूअर का शव पड़ा हुआ था। बिना मेहनत इतना सारा भोजन देख गीदड़ मन ही मन बहुत खुश होता है और मन ही मन सोचता है कि आज तो ईश्वर की बड़ी कृपा हुआ, जो इतना अच्छा और अधिक भोजन एक साथ मुझे मिला है। मैं इसे धीरे-धीरे और आराम से खाऊंगा, ताकि लंबे समय तक मैं इसे उपयोग में लाऊंगा। इस तरह मैं इस भोजन के साथ लंबे समय तक अपनी भूख को शांत रख पाऊंगा।
इन सभी बातों पर विचार करते हुए गीदड़ सबसे पहले छोटी-छोटी चीजों को खाना शुरू करता है। तभी उसे शिकारी के मृत शरीर के पास धनुष पड़ा दिखता है। गीदड़ के मन में पहले उसे ही खाने का विचार आता है और वह धनुष पर चढ़ी डोर को चबाने लगता है।
गीदड़ के चबाने से धनुष पर चढ़ी डोर टूट जाती है और डोर के टूटने से धनुष का एक सिरा वेग के साथ गीदड़ के माथे को भेदता हुआ ऊपर निकल आता है। गीदड़ के माथे को भेद कर धनुष का जो सिरा गीदड़ के सिर पर निकल आता है, वह ऐसा प्रतीत होता है मानो गीदड़ के माथे पर शिखा निकल आई हो। घायल होने के कारण कुछ देर बाद गीदड़ की भी मौत हो जाती है।
इतना कहते हुए ब्राह्मण कहता है, “ब्राह्मणी इसीलिए मैं कहता हूं कि जरूरत से अधिक लोभ से माथे पर शिखा आ जाती है।”
यह कथा सुनने के बाद ब्राह्मणी कहती है, “ठीक है अगर ऐसी ही बात है, तो घर में जो मुट्ठी भर तिल पड़े हैं, उन्हीं को मैं अतिथियों को खिला देती हूं।”
ब्राह्मणी की यह बात सुनकर ब्राह्मण संतुष्ट होता है और भिक्षा मांगने के लिए घर से बाहर निकल जाता है। वहीं, ब्राह्मणी भी घर में पड़े तिल को धूप में सुखाने के लिए फैला देती है। तभी कही से एक कुत्ता आ जाता है और उन साफ तिलों पर पेशाब कर देता है, जिससे सभी तिल खराब हो जाते हैं।
तिल के खराब हो जाने पर ब्राह्मणी काफी परेशान हो जाती है और सोचती है यही तो तिल थे, जिन्हें पका कर मैं अतिथियों को खिला सकती थी। अब मैं क्या करूं? काफी देर सोचने के बाद ब्राह्मणी को एक तरीका सूझा।
उसने सोचा कि अगर वह गंदे तिलों के बदले साफ तिल देने की बात कहेगी, तो कोई भी आसानी से मान जाएगा। साथ ही किसी को भी इन तिलों के खराब होने की बात पता नहीं चलेगी। इस विचार के साथ वह उन तिलों को लेकर घर-घर घूमने लगी।
ब्राह्मणी की यह बात सुनकर एक महिला वह तिल लेने के लिए तैयार हो गई, लेकिन उस महिला का पुत्र अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था। उसने अपनी मां से कहा कि इन तिलों में जरूर कोई न कोई खोट होगी, वरना कौन साफ-सुथरे तिलों को गंदे तिलों के बदले देने के लिए तैयार होगा। पुत्र की यह बात सुनकर महिला ने ब्राह्मणी के तिलों को लेने से मना कर दिया।
हमारे पास जो भी होता है, हमें उसी में सुखी रहना चाहिए। किसी के पास ज्यादा चीज देखकर दुखी नहीं होना चाहिए।
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